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मैं प्रेम करना चाहता था ईश्वर से
बिना डरे बिना झुके
पर इसका कोई वैध तरीका स्थापित ग्रंथों में नहीं था
वहाँ भक्ति के दिशा-निर्देश थे
लगभग दास्य जैसे
जिन पर रहती है मालिक की नजर
मेरे अंदर का खालीपन मुझे उकसाता
उसकी महिमा का आकर्षण मुझे खींचता
जब-तब घिरता अँधेरे में उसकी याद आती आदतन
मैं समर्पित होना चाहता था
अपने को मिटाकर एकाकार हो जाना चाहता था
पर यह तो अपने को सौंप देना था किसी धर्माधिकारी के हाथों में
मैंने कुछ अवतारों पर श्रद्धा रखनी चाही
कृष्ण मुझे आकर्षित करते थे
उनमें कुशल राजनीतिज्ञ और आदर्श प्रेमी का अद्भुत मेल था
पर जब भी मैं सोचता
भीम द्वारा दुर्योधन की टाँग चीरने का वह दृश्य मुझे दिखता
पार्श्व में मंद-मंद मुस्करा रहे होते कृष्ण
मुझे यह क्रूर और कपटपूर्ण लगता था
उस अकेले निराकार तक पहुँचने का रास्ता
किसी पैगंबर से होकर जाता था जिसकी कोई-न-कोई किताब थी
यह ईश्वर के गुप्त छापेखाने से निकली थी
जो अक्सर दयालु और सर्वशक्तिमान बताया जाता था
और जिसके पहले संस्करण की सिर्फ पहली प्रति मिलती थी
इसका कभी कोई संशोधित संस्करण नहीं निकलना था
शायद ईश्वर के पास कुछ कहने के लिए रह नहीं गया था
या उसकी आवाज लोगों ने सुननी बंद कर दी थी
उससे डरा जा सकता था या डरे-डरे समर्पित हुआ जा सकता था
अप्सराओं से भरे उस स्वर्ग के बारे में जब भी सोचता
मुझे दीखते धर्म-युद्धों में गिरते हुए शव
हिंसा और अन्याय के इस विशाल साम्राज्य में
जैसे वह एक आदिम लत हो
मठ और महंतो से परे
उस ईश्वर से प्रेम करने का क्या कोई रास्ता है
और क्या उसकी जरूरत भी है
अपने श्रम के अतिरिक्त क्या चाहिए मुझे ?
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